Latest Update

ग़ज़ल : नितांत मौलिक

 नितांत मौलिक


हैं ख़ामोश आँखें ज़ुबाँ पर भी ताले
हमारा मुक़द्दर ख़ुदा के हवाले


हिफाज़त मैं जाँ की भला किससे माँगू
पड़े हैं सभी को यहाँ जाँ के लाले


ग़रीबी की पीड़ा समझना वो चाहे
अमीरी की बेड़ी को क़दमों में ड़ाले


वो क्या मुझको देगा ये है उसकी मर्ज़ी
अँधेरे भी उसके उसी के उजाले


तुम्हें आह उनकी नहीं जीने देगी
अगर तुमने भूखों के छीने निवाले


                         


                         बलजीत सिंह बेनाम


Post a Comment

0 Comments